आर्य - अनार्य : वाद - विवाद
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सजीव और निर्जीव ऐसे दो प्रकारों से सृष्टि बनी है, सजीव मे वनस्पती और प्राणियों का समावेश होता है. निर्जीवों से सजीव बने है. सजीव पृथ्वी, आप, तेज और वायु इन चार भौतिक पदार्थों से बने है. भौतिक पदार्थ अनु और रेणु से बने है, विशिष्ट अनुकूल परिस्थिति रहने पर जीवन का निर्माण होता है. जिसे हम चेतना भी कहते है,
जिव का दूसरा नाम चेतना है, अनु-रेनु के आपस मे टकराने से उर्जा होती है. बिजली, हवा, पानी यह भौतिक पदार्थ है. पदार्थो कों किसी ने निर्माण नही किया, उसका विकास हुआ. प्राणियों का भी उसी तरह से विकास हुआ. कोई भी जन्म नही लेता है और कोई न मरता है, जो बदलाव दिखता है वह विकशित रूप है, जिसे हम जन्म या उदय कहते है.
प्राणी अन्न (पृथ्वी), पानी (आप), उष्णता (तेज) और हवा (वायु) से बने है. प्राणी का जन्म होना यानि नया रूप धारण करना है, जब वह हमारे आखों से दिखता है तो हम समजते है की जन्म हुआ, लेकिन वह भ्रम है. अतिशुक्ष्म चीज/प्राणी हमारे आखों से नही दिखते.
हर प्राणी प्रथम सूक्ष्म होते है जब उसे हम देख भी नही सकते, उसमे चेतना, उर्जा, जिव बना होता है, मगर हमारे आखों से नही दिखता इसलिए हम उनका अस्तित्व ध्यान मे नही लेते. यह गलती हमारी है, क्योंकी वह जिव होने पर भी हम उसे देख नही पाते. जो भी जन्मे जैसा लगता है वह सच मे विकसित हुआ होता है, न की जन्मा.
मरना क्या है? चार भौतिक पदार्थों का एक दूसरे से विलग होने कों मरना कहते है. उसमे जिव, चेतना, उर्जा का अभाव होता है. भौतिक रूपों कों हमने विविध नाम दिए है. रूप हमेशा बदलते रहते है तो फिर नामों मे भी परिवर्तन की जरुरी है, मगर हम सूक्ष्म परिवर्तनों कों भूलकर हमारी एक सोच बनाते है. इसलिए हमारे विचारों मे दोष दिखाई देते है.
मानव प्राणी अगर बुरा कर्म करते है तो वह नर्क मे जाता है और अच्छे कर्म करता है तो वह स्वर्ग मे जाता है. ऐसी हमने धारणा बनाई है क्योंकि वह हमारे शास्त्रों मे या धर्म ग्रंथो मे लिखी है. क्या, बिना लिखे कोई भी धर्मग्रन्थ बना है? दुनिया मे जितने भी धर्मग्रन्थ है उसे मानवों ने ही लिखा है. लेकिन हम ईश्वर का नाम सामने करते है. क्या सच कों झूट और झूट कों सच कहना गलत नही है?
जिन मानवों ने धर्मग्रन्थ लिखा है, न उन्होंने स्वर्ग कों देखा और न नर्क कों देखा है. फिर बिना देखे उसकी कल्पना करके सही और गलत धारणा बनाना और उनपर विश्वास करना कितने प्रतिशत उचित है? हमें नर्क की शिक्षा से डराया जाता है, हम डर के मारे धर्मग्रंथों का पालन करते है.
न किसी ने आत्मा देखा, न किसी ने ईश्वर कों देखा और न किसी ने स्वर्ग-नर्क कों देखा है. किन्तु जनता कों लूटने के लिए उन्हें बेवकूफ बनाया जाता है. अज्ञानी गरीब जनता लुटते जाती और सरकार चुपचाप देखते रहती, जिसका परिणाम जो भी होगा उसे ईश्वर के हातों मे सोंपती है. जो लोग भगवान भरोसे है उनका और उनके देश का भविष्य अंधकारमय है,
मानव प्राणियों कों ही नर्क का डर दिखाया जाता है किसी अन्य प्राणियों कों क्यों नही? क्योंकी हम उन्हें नही समझा सकते. जिन्हें मुर्ख बनाया जाता है उसी कों मुर्ख बनाया जाता है. पुरे संसार मे एक ही भगवान है जिनका नाम खुदा है, उन्होंने सजीव और निर्जीव हमारे लिए बनाए है,
हम उनके मालिक है और वे हमारे नोकर है. हम अगर ईश्वर के आदेशों का पालन नही करते है तो नर्क मे जाना पड़ेगा, इस् डर से निजात मिलनी चाहिए इसलिए मंदिर, मज्जिद, चर्चों का निर्माण किया गया है. यह जनता कों ठगने के केंद्र है. यह सामाजिक शोषण करने के लिए मदत करते है, गुनाहगार है, उन्हें उचित शिक्षा मिलनी चाहिए.
मुस्लिम लोगों का कहना है की मारने के बाद हम जन्नत मे जाना चाहिए इसलिए वे इस् जीवन कों जीते है, जीवन तो यही है, इस् जीवन मे जो कर्म करेंगे उनके फल यही जीवन मे मिलते है, जेल मे जाना यानि नर्क मे जाना है. अगले बार कोनसे जन्म जानेवाले है? इसकी सही दिशा किसे भी पता नहीं है किन्तु उसे अपने कल्पना से हम गढ़ लेते है. धार्मिक ठग लोगों कों उचित शिक्षा का प्रावधान होना चाहिए. आर्थिक चोरों कों हम जेल देते है फिर धार्मिक लुटाऊ कों क्यों छोड़ते है?
धर्म के नामपर सामाजिक वातावरण प्रदूषित करना न जनता के हितों मे है औए न देश के हितों मे है. न जाने राजनेता भी सरकारी तिजोरी कों मंदिर-मज्जिद कों खड़ा करने मे मदत क्यों करते है? क्या वे अपराध के श्रेणी मे नही आते? असली धार्मिक लुटारूओं कों जबतक नही पकड़ेंगे तबतक आतंकवाद पर काबू पाना असम्भव है. जो धर्म शिक्षा के नाम पर अज्ञान का प्रचार करते है, उन्हें मदत करने के बजाए कठोर से कठोर शिक्षा मिलनी चाहिए.
भारत मे हजारों सालों से वर्ण व्यवस्था थी तो युरोंप मे वंश व्यवस्था. गोरे लोग और काले लोग इनके बिच वंश संघर्ष काफी समय तक चलते रहा. मार्टिन ल्यूथर किंग ने जीवन भर अपने मानवीय अधिकारों के लिए गोरे लोगों से संघर्ष किया और कहा की वंश यह केवल त्वचा के रंग से पवित्र या अपवित्र साबित नही होता, वैसे ही बाबासाहब आंबेडकर ने भी जन्म के आधार पर वर्णों कों अच्छा या बुरा नही कह सकते, उनके आधार पर मानवीय संघर्ष अनुचित है.
वंश या वर्ण के आधार पर भेदभाव करना और मानवीय समूह मे तनाव निर्माण करना, यह मानवी अस्तित्व कों खतरा है. देश और विदेश मे इनके खिलाफ कानून बने, पर कुछ विषमतावादी लोग अपने कों सच, पवित्र और दूसरों कों झूट, अपवित्र साबित करने का हमेशा प्रयास करते रहते है.
वर्णों कों वंशो से जोड़कर आपस मे यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया की
विश्व मे आर्य (विजयी) और अनार्य (पराजई) ऐसे दो समूह बनाने के गलत प्रयास होते रहे. गोरे लोग चमड़ी के आधार पर आर्य और काले लोग अनार्य साबित नही हो सकते. भारतीय लोगों ने भी खुद कों आर्य समजकर, गोरे लोगों से अपना रिस्ता बनाने का प्रयास किया था. उनके लिए पश्चिम के विद्वानों के विचारों का हवाला दिया गया. डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने इस् तरह की भेदभाव पूर्ण नीतिओं कों खत्म करने के उद्धेश से देशी तथा विदेशी विद्वानों के विचारों का खंडन किया.
डॉ बाबासाहब आंबेडकर अपने शोध ग्रन्थ मे लिखते है, "सबसे मानवीय प्रमाण मानव शास्त्रान्वेसण का था. पहला अनुसंधान सर हरबर्ट रिजले ने ई.स.१९०१ मे किया. उनका कथन है की, भारत की चार जातीया (वर्ण) - आर्य, द्रविड़, मंगोल और सीरियन का मिश्रण है. सन १९३६ मे डॉ. गुहा ने पुन्हा अनुसन्धान किया. उनके अनुसार भारतीय दो जातियों के है, यानि लंबे सिर वाले और छोटे सिर वाले. पश्चिम मे भी मेडीट्रेनियन के लोग लंबे सिर वाले और अल्पस प्रदेश के लोग छोटे सिर वाले थे. मेडीट्रेनियन लोग यूरोप मे रहते थे और आर्य भाषा बोलते थे, अल्पस एशिया के हिमालय प्रदेश मे रहते थे और आर्य भाषा बोलते थे.
अतएवं, हर प्रकार से यह सिद्ध है की आर्यो की दो जातिया थी, जैसा की वृग्वेद से प्रकट होता है. अतएवं पश्चिम के सिद्धांत की आर्य एक जाती है और उन्होंने हिन्दुस्थान मे आकर दासों और दस्सुओं पर विजय पाई, यह सही नही है." (शूद्रों की खोज. अध्याय - ५)
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